सुप्रीमकोर्ट ने सुलझाया अनुच्छेद 370 (Article 370) का पेंच, अब जम्मू-कश्मीर का भविष्य क्या होगा?  

Vishal Purohit

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Article 370
भारत के इतिहास में 11 दिसम्बर का दिन ऐतिहासिक साबित हुआ है, क्यूंकि इस दिन अनुच्छेद 370 (Article 370) पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के सरकार के फैसले को बरकरार रखा। अदालत ने अपना ये फैसला 23 याचिकाओं पर सुनाया। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद 5 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा था। इस अनुच्छेद के जरिए जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा मिला हुआ था। CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की संविधान पीठ ने इस मामले पर अपना फैसला सुनाया।

क्या है अनुच्छेद 370 (Article 370)?

भारत के संविधान में 17 अक्तूबर, 1949 को अनुच्छेद 370 शामिल किया गया था। यह जम्मू-कश्मीर को भारत के संविधान से अलग रखता था। इसके तहत राज्य सरकार को अधिकार था कि वो अपना संविधान स्वयं तैयार करे। साथ ही संसद को अगर राज्य में कोई कानून लाना है तो इसके लिए यहां की सरकार की मंजूरी लेनी होती थी। गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को खत्म कर दिया था। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में भी बांट दिया था। अब दोनों ही केंद्र प्रदेश हैं। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा है, जबकि लद्दाख में विधानसभा नहीं है. हालांकि, सरकार का कहना है कि सही समय आने पर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा।

फैसले के मुख्य बिंदु (Supreme Court Verdict on Article 370):

  • सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के 2019 के फैसले को सर्वसम्मति से बरकरार रखा, जिसमें अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण को सही ठहराया गया।
  • मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था और राष्ट्रपति को इसे निरस्त करने का अधिकार है।
  • कोर्ट ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण में कोई दुर्भावना या असंवैधानिकता नहीं थी।
  • हालांकि, कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच के लिए एक “सत्य और सुलह आयोग” का गठन किया जाए।

फैसले के संभावित प्रभाव:

इस फैसले के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में दूरगामी प्रभाव पड़ने की संभावना है। कुछ संभावित प्रभाव इस प्रकार हैं:
  • जम्मू-कश्मीर का भविष्य: जम्मू-कश्मीर पर विशेष दर्जा हटाने से केंद्र सरकार को राज्य के विकास और प्रशासन में अधिक प्रत्यक्ष भूमिका निभाने की अनुमति मिल सकती है। हालांकि, यह स्थानीय आबादी के बीच अलगाववाद की भावना को भी बढ़ा सकता है।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा: केंद्र सरकार का मानना है कि अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण से आतंकवाद और अलगाववाद पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यह कदम विपरीत असर डाल सकता है और राज्य में अशांति को बढ़ा सकता है।
  • राजनीतिक परिदृश्य: इस फैसले का विपक्षी दलों द्वारा विरोध किया जा रहा है, जबकि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने इसे एक ऐतिहासिक जीत के रूप में प्रस्तुत किया है। यह संभव है कि अगले लोकसभा चुनावों में यह मुद्दा प्रमुखता से उठे।

विवाद और चिंताएं:

हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कई सवालों के जवाब दिए हैं, लेकिन यह विवाद का पूरी तरह से अंत नहीं करता है। कुछ प्रमुख चिंताएं इस प्रकार हैं:
  • स्थानीय लोगों की संतुष्टि: यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि जम्मू-कश्मीर के लोग केंद्र सरकार के फैसले से संतुष्ट हैं और उनकी आवाज सुनी जा रही है। विकास और प्रशासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।
  • मानवाधिकारों का उल्लंघन: सुप्रीम कोर्ट ने “सत्य और सुलह आयोग” के गठन का निर्देश दिया है, जो महत्वपूर्ण है। हालांकि, जम्मू-कश्मीर में अभी भी मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लग रहे हैं। इन आरोपों की निष्पक्ष जांच जरूरी है।
  • भविष्य की अनिश्चितता: जम्मू-कश्मीर का भविष्य अभी भी काफी हद तक अनिश्चित है। सरकार को राज्य के सभी वर्गों के साथ मिलकर काम करना चाहिए और एक ऐसा समाधान ढूंढना चाहिए जो सभी के लिए स्वीकार्य हो।

सरकार ने प्रक्रिया को बताया तर्कसंगत

दरअसल, सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से कपिल सिब्बल, गोपाल सुब्रमण्यम, दुष्यंत दवे, राजीव धवन, दिनेश द्विवेदी, गोपाल शंकरनारायण समेत 18 वकीलों ने दलीलें पेश की थी। जबकि केंद्र और दूसरे पक्ष की ओर से AG आर वेंकटरमणी, SG तुषार मेहता, हरीश साल्वे, महेश जेठमलानी, मनिंदर सिंह, राकेश द्विवेदी ने दलीलें रखी। सरकार ने मुख्य तौर पर राज्य के विभाजन और अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को शिथिल करने के लिए अपनाई गई संसदीय प्रक्रिया को पूरी तरह तर्क संगत और उचित बताया था। केंद्र ने कहा कि राज्य की संविधान सभा के विघटन के साथ ही विधान सभा सृजित की गई। जब विधान सभा स्थगित हो तो राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्र को संसद की सम्मति से निर्णय लेने का अधिकार है। इसमें कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ हो और केंद्र राज्य के बीच संघीय ढांचे का उल्लंघन करता हो। वहीं, दूसरी ओर याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील थी कि केंद्र ने मनमानी करते हुए राज्य विधान सभा के विशेष अधिकार और यहां के विशिष्ट स्वरूप यानी संविधान की अनदेखी की है। जबकि राज्य के बंटवारे पर राज्य की जनता यानी उनके नुमाइंदों यानी विधान सभा की अनुमति या सम्मति लेनी जरूरी थी। केंद्र सरकार ने ऐसा ना करके केंद्र राज्य संबंधों के नजरिए से राज्य के अधिकारों का अतिक्रमण किया है।

सुप्रीम कोर्ट ने दोनों ही पक्षों से पूछे थे कई सवाल

16 दिनों तक चली इस प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट ने भी कई टिप्पणियां की। जिनमें केंद्र से पूछा गया कि आखिर उसने किस कानून के तहत ये कदम उठाया? – राज्य का बंटवारा मनमाने ढंग से करने के आरोपों पर उसका क्या कहना है?इसकी शक्ति उसे किस कानून से मिली? सरकार जम्मू कश्मीर को उसका पूर्ण राज्य का दर्जा कब मिलेगा और सरकार वहां चुनाव कब कराएगी? जम्मू- कश्मीर को लेकर केंद्र का रोडमैप क्या है?
इस पर सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि लद्दाख स्थाई रूप से केंद्र शासित प्रदेश रहेगा। वहां चुनाव हो रहे हैं। जम्मू कश्मीर में वोटर लिस्ट अपडेट हो रही है। हम तो तैयार हैं. अब आगे का चुनाव कार्यक्रम तो इलेक्शन कमीशन को ही तय करना है। वहीं, जम्मू- कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के सवाल पर उनका कहना था कि इसको लेकर वे कोई समय सीमा नहीं बता सकते।

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